Saturday, August 24, 2013

ऊँचाई

ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते
,
पौधे नहीं उगते
,
न घास ही जमती है।
          जमती है सिर्फ बर्फ,
          जो, कफन की तरह सफेद और,
          मौत की तरह ठंडी होती है।
          खेलती, खिल-खिलाती नदी,
          जिसका रूप धारण कर,
          अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
ऐसी ऊँचाई
,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे
,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे
,
अभिनन्दन की अधिकारी है
,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है
,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं
,
          किन्तु कोई गौरैया,
          वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
          ना कोई थका-मांदा बटोही,
          उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफि नहीं होती
,
सबसे अलग-थलग
,
परिवेश से पृथक
,
अपनों से कटा-बंटा
,
शून्य में अकेला खड़ा होना
,
पहाड़ की महानता नहीं
,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
          जो जितना ऊँचा,
          उतना एकाकी होता है,
          हर भार को स्वयं ढोता है,
          चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
          मन ही मन रोता है।

जरूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो
,
जिससे मनुष्य
,
ठूंट सा खड़ा न रहे
,
औरों से घुले-मिले
,
किसी को साथ ले
,
किसी के संग चले।
          भीड़ में खो जाना,
          यादों में डूब जाना,
          स्वयं को भूल जाना,
          अस्तित्व को अर्थ,
          जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौनों की नहीं
,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें
,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें
,
          किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
          कि पाँव तले दूब ही न जमे,
          कोई कांटा न चुभे,
          कोई कलि न खिले।

न वसंत हो
, न पतझड़,
हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
,
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।

          मेरे प्रभु!
          मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
          गैरों को गले न लगा सकूँ,
          इतनी रुखाई कभी मत देना।

- अटल बिहारी वाजपेयी